कानों को चीरती हूटर की आवाज और चमकती हुई लाल - पीली बत्तियों वाली गाड़ियों के लंबे काफिले, राजधानी की सड़कों पर ये नजारे आम हैं। कह सकते हैं कि इनके होने से ही किसी शहर के राजधानी होने का अहसास होता है। राज्यों की राजधानी की ही बात करें तो सत्ता पर काबिज नेताजी लोगों के आने- जाने का सिस्टम यही है। वैसे तो नेताजी लोग पूरे देश में कहीं भी ऐसे ही तामझाम के साथ चलते हैं लेकिन राजधानी में चमक-धमक का ये जमावड़ा कुछ ज्यादा ही देखने को मिलता है। आप में से कई लोगों ने ऐसे नजारे देखे होंगे जब वीआईपी काफिले सड़कों पर घंटो जाम लगा देते हैं। काफिला राज्य के मुखिया का हो तब तो कहना ही क्या? घंटे भर पहले से सड़क पर खाकी का कहर दिखने लगता है। राजधानी में कानून व्यवस्था का हाल जो भी हो लेकिन सीएम साहब के लिए सड़क सूनी करने में सिपाही से लेकर अफसर तक जमकर पसीना बहाते हैं। किसी गरीब रिक्शे वाले या ऑटो वाले को गाड़ी हटाने में थोड़ी देर हो गई तो आपको तुंरत पता चल जाएगा की हमारी पुलिस मां और बहनों की कितनी इज्जत करती है। जगह-जगह ट्रैफिक रोक दिया जाता है, क्योंकि सीएम साहब का टाइम कीमती है, आम आदमी का क्या है देर हो गई तो हो गई। फिर क्या फर्क पड़ता है कि रोके गए ट्रैफिक में कोई मरीज फंसा हो जिसे तुरंत अस्पताल पहुंचाना जरूरी है। क्या फर्क पड़ता है किसी की फ्लाइट या ट्रेन छूट रही हो।
इस मुद्दे पर इसलिए अपनी बात कहने का मन हुआ क्योंकि वीआईपी मूवमेंट के नाम पर मनमानी की जाती है। मुझे अब तक तीन राज्यों की राजधानी में रहने का सौभाग्य मिला और तीनों ही जगह मैंने यही देखा। ऐसी कैसी सुरक्षा और जल्दबाजी है कि सैकड़ों लोगों को रोज परेशान होना पड़े। मैं जब-जब ऐसे-नजारे देखता हूं मुझे पीड़ा होती है। वोट लेने तक तो देश में लोकतंत्र होता है लेकिन सत्ता मिलते ही लोक लुप्त हो जाता है और नेता तंत्र का स्वामी बन जाता है। नेताजी शायद ये भूल जाते हैं कि वो जिस गाड़ी में बैठे हैं, और जिस पेट्रोल या डीजल से वो गाड़ी चल रही है वो सब उसी जनता के पैसे से खरीदा जाता है जो ट्रैफिक में फंसकर परेशान होती है। क्या ये वाकई जरूरी है कि कई गाड़ियों का काफिला होने पर ही कोई बड़ा मंत्री या नेता कहलाएगा? राजा महाराजाओं के दौर में ऐसी मनमानी होती तो समझ भी आता लेकिन वोट से सत्ता हासिल करने वालों को ऐसी मनमानी का कोई हक नहीं है। आम आदमी को मुश्किलें न हो इसका ख्याल हमेशा रखा जाना चाहिए। जरूरत हो तो वीआईपी मूवमेंट के लिए अलग सड़कें बनाई जानी चाहिए।
Wednesday, July 28, 2010
Thursday, February 4, 2010
अन्नदाता के सवाल

देश में खेती और किसानों ने आजादी के बाद काफी तरक्की की है। आने वाले सालों में खेती के क्षेत्र में और ज्यादा विकास के लिए कोशिशें की जा रही है। गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने भी दूसरी हरित क्रांति की ज़रूरत बताई है। खेती और हमारे अन्नदाता किसानों के लिए सरकार ने कई ऐसे काम किए हैं जिन पर खुशी जाहिर की जा सकती है लेकिन कई ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब तलाशे जाना बाकी है। क्या वाकई हिंदुस्तान का किसान नई सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है? क्या देश के ज्यादातर किसान आज के दौर में ज़रूरी सुख सुविधाओं का उपभोग कर पा रहे हैं? क्या हमारे किसान नई तकनीक का सही ढंग से उपयोग करने के लिए तैयार हैं? डॉक्टर अपने बेटे को डॉक्टर बनाना चाहता है। इंजीनियर अपने बेटे को इंजीनियर बनाना चाहता है,यहां तक कि नेता भी अपने बेटे को नेता बनाना चाहते हैं लेकिन आखिर ऐसी क्या वजह है कि देश का किसान अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता। चंद अपवादों को छोड़ दें तो आज भी ज्यादातर किसान यही चाहते हैं कि उनकी आने वाली पीढ़ी खेती न करे। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए इससे बड़ी विडंबना भला और क्या हो सकती है। हिंदुस्तान का किसान मेहनत करने से भी नहीं डरता लेकिन फिर भी खेती से मोहभंग हो रहा है। देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा और किसानों के जीवन स्तर में भी सुधार हुआ है लेकिन ये सुधार उतना असरदार नहीं है जितना व्यापारी, नेता या नौकरीपेशा लोगों के जीवन में आया है। किसानों के हाथ में आने वाला शुद्ध मुनाफा आज भी संतोषजनक नहीं है। आखिर किसानों के साथ इतनी समस्याएं क्यों हैं? मोटी सब्सिडी दी जाती है। हजारों करोड़ का कर्ज माफ किया जाता है फिर भी हालात में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आता। दरअसल हमारी सरकारों ने वोट की खातिर भोले भाले किसानों को झुनझुने तो खूब थमाए लेकिन उनके स्थायी विकास के लिए दूरदर्शिता के साथ कोशिशें नहीं की गई। आज देश में कितने ऐसे कृषि विश्वविद्यालय हैं जो गांव में चल रहे हैं। इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले 95 फीसदी से ज्यादा (या इससे भी ज्यादा) छात्र खेती करने के लिए नहीं बल्कि कृषि विभाग में मालदार नौकरियां हासिल करने के लिए यहां आते हैं। ये हमारी नीतियों की खामियां नहीं तो और क्या है? कुछ ऐसे किसान जो बेहतरीन काम कर रहे हैं, लीक से हटकर काम करके मिसाल बन रहे हैं क्या उन्हें आगे बढ़ाने के लिए विश्वविद्यालयों में कुछ विशेष तरह के कोर्स तैयार नहीं किए जा सकते। अच्छे पत्रकार मीडिया स्कूलों में गेस्ट लेक्चर के लिए जा सकते हैं, अच्छे कारोबारी बिजनेस स्कूलों में पढ़ाने जा सकते हैं भले ही उन्होंने इससे जुड़ा कोर्स किया हो या न किया हो तो फिर क्या वजह है कि सफल किसानों को ऐसा ही मौका कृषि विश्वविद्यालयों में नहीं दिया जाता। इन विश्वविद्यालयों में जो लोग पढ़ा रहे हैं उनमें से कितने ऐसे हैं जो किताबी खेती से ज्यादा जानते हैं। हमने अपने किसानों को उड़ने के लिए वो आकाश नहीं दिया जिसकी उन्हें ज़रूरत है। किसानों को सक्षम बनाने की बजाए कर्ज माफ करके हमारी सरकारों ने उन्हें मुफ्त का माल थमाने की परंपरा को आगे बढ़ाने में ही भलाई समझी। किसी को भी ये नहीं भूलना चाहिए कि हिंदुस्तान जैसे कृषि प्रधान देश में किसान अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। अन्नदाता आगे नहीं बढ़ेगा तो पूरा सिस्टम चरमरा जाएगा।कई लोगों को ये समस्या और सवाल छोटे या बेवजह लग सकते हैं लेकिन हकीकत ये है कि यही हाल रहा तो हालात बद से बदतर हो जाएंगे। अब तो चुनौतियां और ज्यादा हैं आने वाले तकनीक के युग में किसानों को केवल आधुनिक मशीनें देने से काम नहीं चलेगा उन्हें इनका इस्तेमाल भी सिखाना होगा। शिक्षा का ऐसा सिस्टम बनाना होगा जिसमें किसान के लिए भी जगह हो। कृषि विश्वविद्यालयों के पूरे ढांचे को भी बदलना होगा, ताकि ये संस्थान कृषि विभाग के लिए सरकारी अफसर और बाबू नहीं बेहतरीन किसान तैयार करें। जाहिर है अगर ऐसी किसी परिकल्पना को साकार करना है तो देश के सुलझे हुए और शिक्षित किसानों (जो वाकई खेती कर रहे हैं)को नीति निर्माण में भी भागीदार बनाना होगा।