Monday, October 19, 2009

ख़बरों की दुनिया के बेख़बर!

शहर के एक मशहूर अपार्टमेंट के फ्लैट में देर रात कुछ बदमाश घुस आए। अपार्टमेंट अपनी कॉलोनी के पास ही है लिहाजा घटना के बारे में जानकारी लेने की उत्सुकता जागी। थोड़ी बहुत कोशिश से आधी -अधूरी जानकारी मिली और इस बीच दफ्तर जाने का वक्त हो गया। फिर पता चला कि दफ्तर के रामसुंदर जी भी इसी अपार्टमेंट में रहते हैं। घटना जिस फ्लैट में हुई वो अपार्टमेंट की पहली मंजिल पर है और रामसुंदर जी का घर दूसरी मंजिल पर। ऐसे में रामसुंदर जी से बेहतर जानकारी भला कौन दे सकता था। रामसुंदर जी ठहरे पत्रकार, वो भी टेलीविजन के मतलब इन्हें तो पूरी जानकारी होगी ही। जानकारी पाने की चाहत में रामसुंदर जी के मिलते ही हमने सवाल दाग दिए लेकिन जनाब ये क्या?... जवाब सुनते ही हमारे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। रामसुंदर जी बोले..'भैया! दफ्तर के चक्कर और किच-किच से फुर्सत मिले तो पता चलता न। हम तो देर रात घर पहुंचे थे और अल-सुबह घर से निकल लिए'। रामसुंदर जी का ये जवाब थोड़ा हैरान जरूर करता है लेकिन सच यही है। घर बैठे ड्राइंग रूम में पल-पल की ख़बर पहुंचाने वालों को पड़ोसियों की तो क्या कई मायनों में खुद की ख़बर नहीं है। टेलीविजन पर ख़बरें परोसने में माहिर हमारी जमात में शामिल लोग दूसरों के घर के अंदर तक झांक सकते हैं लेकिन इन्हें अपने और अपने से जुड़े लोगों के बारे में जानने की फुर्सत कहां। साथ में काम करने वाले दोस्त का जन्म दिन हो और इसकी जानकारी एच आर डिपार्टमेंट नोटिस बोर्ड पर न लगाए तो हम में से कितने उसे याद रख पाते हैं। हमारे बीच कितने लोग हैं जो अपनी सेहत को लेकर संजीदा है। जवाब से निराशा ही होगी क्योंकि आप लाख उपदेश दे लीजिए सच यही है कि हमारी जमात में शामिल लोग चैनलों की चाकरी में ऐसे फंस गए हैं कि खुद बेखबर हो गए हैं। मुझे नहीं लगता कि इसके लिए समय कि कमी जिम्मेदार है,क्योंकि केवल व्यस्तता ही वजह होती तो कई बड़े बिजनेसमैन, अभिनेता और राजनेता हमसे कहीं ज्यादा व्यस्त हैं। असल वजह तो कुछ और ही है। हमारे लिए अब केवल वे खबरें मायने रखती हैं जो बिक सकती हैं। अब पड़ोसी के घर में बदमाश घुसे और निकल गए कोई ख़ास कहानी भी नहीं बन पाई तो भला हमें क्या लेना देना। ख़बरों और आसपास के घटनाक्रम को देखने का हमारा नजरिया बदल चुका है। कभी-कभी मुझे लगता है कि कहीं हम ख़बरों के बाजारवाद (या बाजारवाद की ख़बरों)के गुलाम तो नहीं बन बैठे हैं?

आज़ाद क़लम क्यों?

मेरे ब्लॉग का नाम आज़ाद क़लम ही क्यों? मुझे लगता है कि अपनी बात कहने की शुरुआत इसी सवाल के जवाब के साथ होनी चाहिए। इस सवाल का जवाब जितना साधारण है, इसमें छिपी भावनाओं की जड़ें उतनी ही ज्यादा गहरी हैं। पत्रकारिता की दुनिया में रहते हुए कई मुद्दों पर लिखने का मौका मिलता है लेकिन अपने दिल की बात कहने और अपने अनुभवों को बेबाकी से रखने का मौका नहीं मिलता। दफ्तर के बाहर चाय वाले की दुकान पर या किसी नुक्कड़ पर साथ काम करने वालों और दोस्तों के साथ बातें तो बहुत होती है लेकिन ये बातें बहुत जल्द आई गई भी हो जाती हैं। ऐसे में दिल की बात पूरी आज़ादी के साथ कहने के लिए ब्लॉग से बेहतर दूसरा माध्यम नहीं हो सकता। सबसे बड़ी बात ये कि यहां टीआरपी का खेल नहीं है। आपके विचारों और लेखों को कूड़ा बनाने वाले उन नासमझों की नसीहत भी नहीं है जो जानते कुछ नहीं लेकिन तलवे चाट कर बड़ी कुर्सियों पर सवार होकर ज्ञान की शेखी बघारते फिरते हैं। उनकी अपनी नजर में उनसे बड़ा कोई उस्ताद नहीं होता। ये अलग बात है कि दुनिया उन्हें कुछ और ही समझती है। ये धूर्त भी यहां आपके विचारों में घालमेल की मिलावट नहीं कर सकते। मतलब क़लम को पूरी आजादी है और विचारों की उड़ान के लिए पूरा आकाश। यही वो माध्यम है जहां मैं पूरी ईमानदारी से कह सकता हूं कि 'जो कहूंगा सच कहूंगा और सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा'...इसीलिए अब 'आज़ाद क़लम'